Ram Charit Manas Chaupai in Hindi अर्थ सहित ||
क्विक हिंदी के सभी पाठको को सुबह शाम रात्रि की जय श्री राम , जय श्री श्याम आज की हमारी पोस्ट भगवान् राम की कुछ अद्भुत चौपइयो पर है जिसे आप पढोगे तो निश्चित रूप से आपके मन को प्रिय लगेगी .
यह चौपाई पूरे राम चरित मानस में से ले गयी है जिसे नित्य पढकर आप अपने घर के व्याध दर्द दुःख को दूर कर सकोगे .रामचरित मानस का पाठ करने से भगवन राम हमें वह सभी चीज प्रदान करते है जिसे हम प्राप्त करने चाहते है रामचरित मानस का नित्य पाठ करने से हनुमान जी की विशेष कृपा आपके ऊपर बनी रहेगी
राम्चारती मानस चौपाई इन हिंदी के नित्य पाठ से आप भगवन शनि की कुदृष्टि से भी सुरक्षित रहेगे और आप पर किसी भी प्रकार का द्वेष प्रकोप नहीं आएगा
आप सभी राम चरित मानस की चौपाई को कभी भी पढ सकते है अगर आप राम चरित मानस की चौपाई को प्रातकाल उठकर नहाकर धुप दीप जलाकर पढते है तो यह आपके लिए और अच्छा होगा
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥1॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥3॥
पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥4॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥5॥
धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥6॥
मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥7॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥8॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥9॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥10॥
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई॥11॥
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिधि बिधि कीन्हा॥
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई॥12॥
तब जन पाई बसिष्ठ आयसु ब्याह। साज सँवारि कै।।
मांडवी, श्रुतकी, रति, उर्मिला कुँअरि लई हंकारि कै।।13॥
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदय राखि कोसलपुर राजा।।
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥14॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥15॥
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।।
भव भेषज रघुनाथ जसु,सुनहि जे नर अरू नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहि त्रिसिरारि।।16॥
दैहिक दैविक भोतिक तापा | राम राज्य नहि काहुहि व्यापा ||
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी ॥17॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई ॥18॥
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥19॥
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥20॥
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥21॥
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥22॥
कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥23॥
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥24॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥25॥
सीता राम चरण रति मोरे, अनुदिन बढ़ऊ अनुग्रह तोरे।
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥26॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोई पाकी॥
धन्य घरी सोई जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥27॥
एक पिता के बिपुल कुमारा, होहिं पृथक गुन शीला अचारा।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता, कोउ धनवंत वीर कोउ दाता॥28॥
श्याम गात राजीव बिलोचन, दीन बंधु प्रणतारति मोचन।
अनुज जानकी सहित निरंतर, बसहु राम नृप मम उर अन्दर॥29॥
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तुम अभिमान। भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥
राजीव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भं जन सुखदायक।।30॥
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।। 31॥
सुनि प्रभु वचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।।32॥
तब जन पाई बसिष्ठ आयसु ब्याह। साज सँवारि कै।।
मांडवी, श्रुतकी, रति, उर्मिला कुँअरि लई हंकारि कै।। 33॥
दीनदयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।34॥
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह के मन अति बिसमय भयऊ॥
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥35॥
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥36॥
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥37॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥38॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥39॥
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥40॥
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥41॥
कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित् सब भाषा॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥42॥
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥
गगन पंथ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता॥43॥
राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥44॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥45॥
नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाइ। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥
मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥46॥
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई। तब बालीं मोहि कहा बुझाई॥
परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥47॥
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥48॥
इहाँ साप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहउँ मन माहीं॥
सुन सेवक दुःख दीनदयाला फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला॥49॥
मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥
पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई॥50॥
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि॥51॥
परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥
स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥52॥
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा॥53॥
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥54॥
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥55॥
जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥56॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥57॥
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा॥
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा॥58॥
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥59॥
पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही॥
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥60॥
एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु॥61॥
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू॥
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी॥62॥
सीलु सनेहु सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥63॥
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥64॥
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी॥65॥
ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥
राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥66॥
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई॥
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे॥67॥
रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥
रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥68॥
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपनें थल॥
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा॥69॥
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥70॥
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुनि पावन प्रेम प्रान की॥71॥
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥72॥
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥73॥
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥74॥
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥75॥
नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई।।
चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते।।76॥
संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन।।
तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता।।77॥
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी।।
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी।।78॥
सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥
जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन॥79॥
Ram Charit Manas Chaupai in Hindi अर्थ सहित
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥80॥
अर्थ – इस चौपाई का भाव यह है की हमारे वेद पुराण यह कहते है की सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके ह्रदय में रहती है बस दोनों में अंतर इतना है की जिस ह्रदय में सुबुधि ( अच्छे विचार रखने वाले ) रहती है वहा पर विभन्न प्रकार की सुख सुविधाए रहती है लेकिन जिस ह्रदय में कुबुधि ( बुरे विचार रखने वाले ) का निवास रहता है वह आदमी भले की कुछ क्षण सुखी को लेकिन वह हमेशा दुःख के घेरे में घिरा ही रहता है
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥81॥
अर्थ- इस चौपाई का भाव यह है की भगवन हरि ( विष्णु ) जो है वह अनंत है उनकी कथाओ का लीलाओ का कोई अंत नहीं है इनकी कथाओ का वर्णन बहुत सारे साधू संत गाते है और इनलो लीलाओ का रसपान करते है और प्रसन्न रहते है भगवन श्री राम के चरित के गुण का बखान करोडो बार में भी नहीं गाया जा सकता है
अगुण सगुण गुण मंदिर सुंदर, भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर।
काम क्रोध मद गज पंचानन, बसहु निरंतर जन मन कानन।।82॥
अर्थ – इस चौपाई में तुलसी दास जी भगवान् श्री राम जी के गुणों का का वर्णन करते हुए कहते है की ये भगवन आप सगुन और निर्गुण दोनों ही है आपका प्रबल तेज सूर्य के प्रकाश के सामान है जो किसी के काम , क्रोध मद और अज्ञानरुपी अंधकार को नाश करने वाला है ! आप हमेशा ही में अपने भक्तो मनरूपी वन में निवास करते है
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जाने कहू बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह के माता । पठइन्ही आई कही तेहि बाता।।
अर्थ –देवताओं ने पवनसुत हनुमान जी को देखा जाते हुए तो उनकी बल बुद्धि का परिक्षण करने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पो की माता को भेजा कहा की आप जाओ और हनुमान जी का परिक्षण लो
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
अर्थ –धीरबुद्धि श्री हनुमान जी ने उस राक्षसी को मारा और उसे मार कर समुन्द्र के पार गए समुन्द्र के पार जाकर हनुमान जी ने वह के वनों की शोभा देखी वन में खिले हुए फूल के लोभ के कारन भौरे गुंजार कर रहे थे
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।
अर्थ –विभीषण जी ने राम नाम का स्मरण किया हनुमान जी ने उन्हें सज्जन जाना और ह्रदय में हर्षित हुए हनुमान जी ने सोचा की इनसे अपनी ओर से परिचय करता हूँ और उन्होंने साधू का वेश धारण कर लिया क्योकि साधू के वेश से कार्य में कोई हानि नहीं होती है
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
अर्थ –जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी को भुलाकर किसी अन्य चीजो के पीछे भटकते है वे दुखी क्यों ना रहे इस प्रकार से श्री रामचन्द्र जी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने परम शांति प्राप्त की
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
अर्थ –अयोध्या पूरी के राजा श्री रघुनाथ जी को ह्रदय में रखकर नगर में प्रवेश कीजिये और अपने सारे काम को पूरा कीजिये . अगर आपको इस काम को पूरा करने में कही पर विष के सामान कष्ट मिलेगा तो वह भी अमृत के सामान सुखकर हो जायेगा
श्री राम प्रभु का नाम लेने से शत्रु मित्रता करने लग जाते है और विशालकाय समुन्द्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है और जला देने वाली तीव्र अग्नि में शीतलता आ जा जाती है
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।
अर्थ –विभीषण जी ने राम नाम का स्मरण किया हनुमान जी ने उन्हें सज्जन जाना और ह्रदय में हर्षित हुए हनुमान जी ने सोचा की इनसे अपनी ओर से परिचय करता हूँ और उन्होंने साधू का वेश धारण कर लिया क्योकि साधू के वेश से कार्य में कोई हानि नहीं होती है
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