श्री गणेशाय नमः
श्रीरामचरित्रमानस सुन्दरकांड श्लोक
शान्तं शावतमप्रेमघनमघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशमभुफणीन्द्रसेव्यमानीशं वेदांतविघ विभुम
रामाख्यं जगदीस्वरम सुरगुरुं मयमनुष्यम हरिम
वन्देहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामडिम
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयस्मदीये
सत्यम वदामि च भवानखिलातरात्मा
भक्ति प्रत्यक्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में
कामदिदोषरहितं कुरु मानसं च
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम
सकलगुणनिधानं वनराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि
Ramayan Chaupai In Hindi
जामवंत के वचन सुहाए। सुनि हनुमंत ह्रदय अति भये।।
तब लगी मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सही दुःख कंद मूल फल खाई।।
अर्थ – जामवंत के बचनो को सुनकर हनुमान जी को बहुत ही अच्छा लगा और उनके बचनो को सुना तो उनके ह्रदय को बहुत ही अच्छा लगा जिसके बाद हनुमान जी ने कहा हे भाई तुम लोग दुःख सहकर यही पर रहना और यहाँ पर उपस्थित कंद मूल फल खाकर मेरी आने की राह देखना
जब लगि आवौ सीतहि देखि। होइहि काजू मोहि हर्ष बिसेषी।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहू माथा । चलेउ हरषि हिय धरि रघुनाथा।।
अर्थ – जब तक मैं सीताजी को देखकर लौट ना आऊ तबतक आप सभी यही रहे और मुझे विश्ववास है की हमारा जो कार्य है वह अवश्य पूर्ण होगा और मुझे इस कार्य कर करने के लिए ख़ुशी है की इस काम को हम पूरा कर रहे है इतना सब कुछ कहने के बाद हनुमान जी ने सबको मस्थक नवाया और ह्रदय में भगवन राम का सुमिरन करके बहुत ही हर्ष से वहा से प्रस्थान किया
सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुवीर संभारी । तरकेउ पवन तनय बल भारी।।
अर्थ –समुन्द्र तीरपर एक सुन्दर पर्वत था जब हनुमान जी ने उस पर्वत को देखा तो खेल ही खेल में हनुमान जी उस पर्वत पर जा चढ़े और बार बार श्री राम जी स्मरण करके अत्यंत बलवान हनुमान जी उसपर कूदने लगे और एक बार जय श्री राम बोलकर अत्यंत बल के साथ उस पर्वत पर कूदे और अत्यंत तेज वेग से उस पर्वत से उछले और आगे बढ़ने लगे
जेहि गिरि चरन देहि हनुमंता। चलेव सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भांति चलेव हनुमाना।।
अर्थ –जिस पर्वत पर हनुमान जी पैर रखकर चले थे वह पर्वत तुरंत ही पाताल में धस गया जैसे श्री राम जी का अमोघ बाण चलता है उसी तरह उस पर्वत से हनुमान जी आगे को चले
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तै मैनाक होहि भ्रम हारी।।
अर्थ –जब समुन्द्र देव ने हनुमान जी को देखा तो सोचा की यह तो श्री राम प्रभु का दूत है जो इस समुन्द्र को लाघ कर प्रभु राम का काम करने जा रहा है तब समुन्द्र देव ने मैनाक पर्वत से कहा की हे मैनाक तू हनुमान जी की थकावट को दूर करो
दो0-हनुमान तेहि परसा कर पुनि किन्ही प्रणाम।
राम काजू कीन्हे बिनु मोहि कहा विश्राम।।1।।
अर्थ –हनुमान जी ने मैनाक पर्वत को हाथो से छू दिया और फिर प्रणाम किया और कहा की ये भाई जब तक मैं श्री राम प्रभु का कार्य को पूरा नहीं कर देता तब तक मुझे आराम नहीं है
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जाने कहू बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह के माता । पठइन्ही आई कही तेहि बाता।।
अर्थ –देवताओं ने पवनसुत हनुमान जी को देखा जाते हुए तो उनकी बल बुद्धि का परिक्षण करने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पो की माता को भेजा कहा की आप जाओ और हनुमान जी का परिक्षण लो
आजु सुरन्ह मोहि अहारा । सुनत वचन कह पवनकुमारा।।
राम काजी करी फिरि मैं आवों । सीता कइ सुधि प्रभुई सुनाओ।।
अर्थ –आज देवताओ ने मुझे भोजन दिया है यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान जी ने कहा की श्री राम जी का कार्य करके मैं लौट आऊ तो सीता माता की खबर प्रभु को सुना दू
तब तव बदन पैठीइउ आई । सत्य कइउ मोहि जान दे माई।।
कबनेहू जतन देइ नहि जाना। ग्रसिस न मोहि कहेव हनुमाना।।
अर्थ –हनुमान जी कहते है की हे माता मैं माता सीता की खबर भगवान् श्री राम को सुना दू फिर उसके बाद स्वयं आकर आपके मुख में घुस जाउगा तब आप मुझे खा लेना हनुमान जी कहते है हे माता मैं सत्य कह रहा हु आप मुझे जाने दो अभी . हनुमान जी ने बहुत सारा प्रयास किया लेकिन सर्पो की माता सुरसा ने हनुमान जी को आगे जाने नहीं दिया तब हनुमान जी ने कहा की हे माता फिर आप ऐसा करो की आप मुझे खा ही लो
जोजन भरि जेहि बदनु पसारा । कापी तनु कीन्ह दुगुन विस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहि ठयऊ । तुरत पवनसुत बत्तीस भयऊ।।
अर्थ –सर्पो की माता सुरसा ने योजनभर ( चार कोष )में अपने मुख का विस्तार किया तब हनुमान जी ने अपने शारीर को उससे दूना बड़ा कर लिया . सुरसा ने फिर अपने अपने मुख को सोलह योजन कर लिए उसके इस सोलह योजन मुख विस्तार की देखकर हनुमान जी ने अपने शारीर को बत्तीस योजन का कर लिए
जस जस सुरसा बदन बढावा। तासु दून कपि रूप दिखावा।।
सत जोजन तेहि आनन् कीन्हा ।अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
अर्थ –जैसे जैसे सुरसा अपने मुख का विस्तार करती वैसे वैसे हनुमान जी अपने शरीर को उसके मुख के दोगुना बड़ा कर लेते थे धीरे धीरे सुरसा अपने मुख को चार सौ कोष कर कर लिए तब हनुमान जी अपने शरीर को बहुत ही छोटा कर लिए
बदन पइठी पुनि बाहर आवा । माँगा विदा ताहि सिरु नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि बल मरूम तोर मैं पावा।।
अर्थ –हनुमान जी सुरसा के मुख में घुसकर वापस निकल आये और माता सुरसा को सर नवाकर विदा मागने लगे तब माता सुरसा ने कहा की मैं यहाँ पर देवताओ के द्वारा भेजी गयी थी आपके बल और बुद्धि कर परिक्षण करने के लिए
दो0-राम काजू सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आशीष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।।
अर्थ –तुम्ह श्री राम चन्द्र जी का सब कार्य करोगे क्योकि तुम बल बुद्धि के भंडार हो यह आशीर्वाद देकर वह वहा से चली गयी तब हनुमान जी हर्षित हुए और वहा से प्रस्थान किया
निशिचिर एक सिन्धु महु रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाई । जल बिलोकि तिन्ह के परिछाई।।
अर्थ –समुन्द्र में एक राक्षसी रहती थी वह माया करके आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को पकड लेती थी वह राक्षसी उन खग को उनकी परिछाई के द्वारा पकड़ लेती थी जब वे खग समुन्द्र में दायरे में आकर समुन्द्र से ऊपर उड़ा करते थे
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
अर्थ –वह समुंदरी राक्षसी परिछाईओ को पकड़ लेती थी जिससे वे उड़ नहीं पाते थे और जल में वही गिर जाते थे इस प्रकार वह जीवो को पकड कर खाया करती थी उस राक्षसी ने वही छल हनुमान जी के साथ भी किया लेकिन हनुमान जी ने उसके इस छल को तुरंत ही पहचान लिया
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
अर्थ –धीरबुद्धि श्री हनुमान जी ने उस राक्षसी को मारा और उसे मार कर समुन्द्र के पार गए समुन्द्र के पार जाकर हनुमान जी ने वह के वनों की शोभा देखी वन में खिले हुए फूल के लोभ के कारन भौरे गुंजार कर रहे थे
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।।
अर्थ –उस वन में अनेको पराक्र के वृक्ष और फल फूल है जो वन को सुन्दर बनाये हुए है हनुमान जी ने उस वन में रह रहे पशुओ के समूह को देखा तो मन में बहुत प्रसन्नता प्राप्त हुई . इन सब सुन्दर्ताओ के बीच में हनुमान जी ने वहा पर एक विशाल पर्वत को देखा हनुमान जी ने भय को त्याग दिया और उस पर्वत पर चढ़ने के दौड़ पड़े और उस पर्वत पर जा चड़े
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।
अर्थ –शिव जी कहते है हे उमा इसमें वानर हनुमान की कोई बड़ाई नहीं है यह तो प्रभू कर प्रताप है जो कालको भी खा जाता है हनुमान जी ने उस पर्वत पर चढ़ कर लंका को देखा जैसे ही उन्होंने लंका को देखा तो देखते ही रह गए इतनी बड़ी लंका जिसका बहुत बड़ा किला दिख रहा रहा और पूरी लंका के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकते था
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा।।
लंका अत्यंत ऊँची है उसके चारो ओर समुन्द्र है सोने की चारदीवारे है जो चारो तरफ परम प्रकाश उत्पन्न कर रही है
छं=कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।1।।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।2।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।3।।
दो0-पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।।
अर्थ –नगर के बहुसंखाय्क रखवालो को देखकर हनुमान जी ने मन में विचार किया की अत्यंत छोटा रूप धरु और रात के समय नगर में प्रवेश करू
मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
अर्थ –हनुमान जी ने मच्छर के सामान छोटा सा रूप धारण किया और श्री राम प्रभु का स्मरण किया और लंका में प्रवेश करने के लिए आगे चले लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक द्वारपाली राक्षसी रहती थी उसने हनुमान जी को देखा तो कहा की मुझसे बिना पूछे कहा चले जा रहे हो
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
अर्थ –हे मुर्ख अभी तक शायद तू मेरा भेद नहीं जानता इस द्वार से जितने भी चोर लंका में प्रवेश करने के लिए जाते है वो सब मेरे आहार होते है अब तू भी मेरा आज का आहार है महाकपि हनुमान जी ने उसे एक घूसा मारा जिससे वह खून की उलटी करने लगे और पृथ्वी पर लुडक गयी
पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।।
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
अर्थ –लंकिनी ने अपने आप को संभाला और उठ खड़ी हुई और डर की वजह से उसने आपने दोनों हाथ को जोड़ लिया और विनती करने लगी फिर उसके बाद वह बोली की रावन को जब ब्रम्हा जी ने वर दिया था तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की पहचान के रूप में बताया था
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।।
अर्थ –ब्रम्हा जी ने मुझसे कहा था की जब तू बन्दर के मारने से व्याकुल हो जाये तब तू राक्षसों का संहार हुआ समझ लेना हे तात मेरे बड़े पुण्य हैं जो मैं श्री राम चन्द्र के दूत को अपनी आँखों से देख पाई हू
दो0-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।।
अर्थ –ते तात स्वर्ग और मोक्ष के सब सुख को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय तो भी वे सब मिलकर दुसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकता है जो क्षण मात्र के सत्संग में होता है
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
अर्थ –अयोध्या पूरी के राजा श्री रघुनाथ जी को ह्रदय में रखकर नगर में प्रवेश कीजिये और अपने सारे काम को पूरा कीजिये . अगर आपको इस काम को पूरा करने में कही पर विष के सामान कष्ट मिलेगा तो वह भी अमृत के सामान सुखकर हो जायेगा
श्री राम प्रभु का नाम लेने से शत्रु मित्रता करने लग जाते है और विशालकाय समुन्द्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है और जला देने वाली तीव्र अग्नि में शीतलता आ जा जाती है
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।
अर्थ –हे गरुण ! जी सुमेरु पर्वत उसके लिए रजके के सामान हो जाता है जिसे श्री राम चन्द्र जी ने एक बार किरपा करके देख लिया तब हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप लिया और भगवन श्री राम जी का स्मरण किया और नगर में प्रवेश किया
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
अर्थ –उन्होंने एक एक प्रतेक महल की खोज की जहा तहा असंख योध्या देखे फिर वे रावन के महल में गए वह अत्यंत विचित्र था जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता था
सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।
अर्थ –हनुमान जी ने रावन को देखा तो उस समय रावन वहा पर शयन कर रहा था परन्तु महल में जानकी जी नहीं थी फिर एक सुन्दर महल हनुमान जी को दिखाई देता है वहा भगवान का एक अलग मंदिर बना हुआ था
दो0-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।5।।
अर्थ –वह महल श्री राम जी के आयुध ( धनुष बाण ) के चिन्हों ने अंकित था उसकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता था वह नवीन नवीन तुलसी के वृक्ष समूह को देखकर कपिराज श्री हनुमान जी हर्षित हुए
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।।
अर्थ –हनुमान जी ने सोचा की लंका तो राक्षसों की नगरी है यह पर राक्षसों का निवास स्थान बना हुआ है तो फिर यहाँ सज्जन पुरुष का निवास कहा ? हनुमान जी इस बात कर विचार मन में कर ही रहे थे तभी उसी समय विभीषण जी जाग गए
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।
अर्थ –विभीषण जी ने राम नाम का स्मरण किया हनुमान जी ने उन्हें सज्जन जाना और ह्रदय में हर्षित हुए हनुमान जी ने सोचा की इनसे अपनी ओर से परिचय करता हूँ और उन्होंने साधू का वेश धारण कर लिया क्योकि साधू के वेश से कार्य में कोई हानि नहीं होती है
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।
अर्थ –साधू का वेश धरकर हनुमान जी ने विभीषण जी को पुकारा सुनते ही विभीषण जी उठकर वहा से आये और प्रणाम किया प्रणाम करके कुशलता पूछी और कहा की हे ब्राह्मण देव अपनी कथा समझकर मुझे बताईये ( अपना परिचय दीजिये )
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।।
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।।
अर्थ –विभीषण जी कहते है की हे ब्राह्मण देव क्या आप हरि भक्तो में से कोई एक है क्योकि आपको देखकर मेरे ह्रदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है अथवा क्या आप दीनो से प्रेम करने वाले स्वयम भगवन श्री राम है जो मुझे बडभागी बनाने मेरे घर आये है
दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।।
अर्थ –तब हनुमान जी ने श्रीरामचन्द्र जी की सारी कथा कहकर अपना नाम बतया सुनते ही दोनों के शरीर पुल्त्कित हो गए और श्री राम जी के गुणसमूहों का स्मरण ककरे दोनों के मन मग्न हो गए
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
अर्थ –विभीषण जी कहते है की हे पवनसुत मेरी रहनी सुनो मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दांतों के बीच में बेचारी जीभ हे तात मुझे अनाथ जानकार सूर्य कुल के नाथ श्री रामचन्द्र जी क्या कभी मुझपर कृपा करेगे ?
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।
अर्थ –मेरा तामसी शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं है और ना मन में श्री राम चन्द्र जीके चरन कमलो में प्रेम ही है परन्तु हे हनुमान अब मुझे विश्वास हो गया है की श्री राम चन्द्र जी की कृपा मुझपर है क्योई हरी की कृपा के बिना संत नहीं मिलते है
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
अर्थ –जब श्री रघुवर जी ने कृपा की है तभी तो आपने मुझे हठ करके अपनी ओर से दर्शन दिए है हनुमान जी ने कहा की हे विभीषण सुनिये प्रभु की यही रीति है की वे सब सेवक पर सदा ही प्रेम दर्शाते है
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
अर्थ –भला कहिये मैं कौन बड़ा कुलीन हू मैं तो जाति का एक बन्दर हू और सब प्रकार से नीच हूँ प्रातः काल अगर कोई मेरा नाम ले ले तो उसे पूरे दिन भोजन नहीं मिलेगा
दो0-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।।
अर्थ –हे सखा ! सुनये मैं ऐसा अधम हूँ पर श्री राम चन्द्र जी ने तो मुझपर भी कृपा की है भगवान् के गुणो का स्मरण करके हनुमान जी के दोनों नेत्र में प्रेमाश्रुओ का जल भर आया
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
अर्थ –जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी को भुलाकर किसी अन्य चीजो के पीछे भटकते है वे दुखी क्यों ना रहे इस प्रकार से श्री रामचन्द्र जी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने परम शांति प्राप्त की
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता।।
अर्थ –फिर विभीषण जी ने श्रीजानकी जी के बारे में वह सारी कथा हनुमान जी से कही की वह लंका में किस भाति रहती है जब विभीषण जी ने जानकी माता की सारी कथा हनुमान जी को बताया तो हनुमान जी ने कहा की मैं माता जानकी को देखना चाहता हूँ
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ।।
अर्थ –विभीषण जी ने माता सीता के दर्शन की सभी युक्तियो के बारे में विस्तार से हनुमान जी को बताया फिर उसके बाद हनुमान जी ने विभीषण जी से विदा ली और माता सीता से मिलने चले फिर वही मच्छर के सामान रूप धारण किया और अशोक वन में पहुचे जहा पर माता सीता रहती थी
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।
अर्थ –सीता माता को देखकर हनुमान जी ने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया उन्हें बैठे बैठे रात्रि के चारो प्रहार बीत जाते है शरीर दुबला पतला हो गया है सर पर जटाओ की एक वेणी है ह्रदय में श्री रघुनाथजी के नाम का जाप कर रही है
दो0-निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।।
अर्थ –श्री जानकी जी ने अपने नेत्रों को अपने चरन कमलो में लगाये हुए है और मन श्री राम जी के चरणों में लीन है जानकी जी को दीं देखकर पवनपुत्र हनुमान जी बहुत दुखी हुए
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा।।
अर्थ –हनुमान ने वृक्ष के पत्तो में छिप रहे थे और विचार कर रहे थे की कैसे माता सीता के दुख को कम किया जा सके उसी समय बहुत सारी स्त्रियों के साथ में सज धजकर रावन वह आता है
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।।
अर्थ –उस दुष्ट ने सीता जी को बहुत प्रकार से समझाया साम दान भय भेद दिखलाया रावन ने कहा की हे सुमुखि हे सायानी सुनो मंदोदरी आदि सब रानियों को —
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।।
अर्थ –मैं तुम्हारी दासी बन दूंगा यह मेरा प्रण है तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही अपने परम स्नेही कोशलाधीश श्री राम चन्द्र जी का स्मरण करके जानकी जी तिनके की आड़ करके कहने लगती है —
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।
अर्थ –हे दसमुख ! सुन जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल नहीं सकती है जानकी जी फिर कहती है तू ऐसा ही मन में समझ ले ये दुष्ट तुझे श्री रघुवीर के बाणों की खबर नहीं है
सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।
रे पापी तू मुझे सूने में हर लाया है ये अधम निर्लज्ज तुझे लज्जा नहीं आती
दो0- आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।9।।
अर्थ –अपने आप को जुगनू के सामान और श्रीरामचन्द्र जी को सूर्य के सामान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावन तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला –
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