Raja Harishchandra Story In Hindi || सत्यवादी हरिश्चंद्र की कहानी
इस कहानी का भारतवर्ष में बहुत ही सम्मान है इस कहानी को लोग बहुत ही सम्मान देते है,यह कहानी है त्याग की,और ऐसे त्यागी राजा की जिसने अपने त्याग के कारण और सत्यवादिता के कारण अपना नाम इस पूरे जगत में अमर कर लिया है
एक बार स्वर्ग लोक में देवराज इंद्रा गुरु विश्वामित्र आचार्य वशिष्ट और अन्य सभी देवतागण बैठ कर चर्चा कर रहे थे की इन दिनों इस संसार में सबसे बडा त्यागी,सबसे बडा दानी और सबसे बडा सत्यवादी कौन है?
जब सभी लोग इस बात पर विचार विमर्श कर रहे थे तभी आचार्य वशिष्ट ने कहा की अगर हम इस समय पूरे संसार में सबसे बड़े दानी सत्यवादी त्यागी व्यक्ति या देवता को खोज रहे है तो वह तो सिर्फ एक ही है जो इस समय वह पृथ्वी लोक पर रहे है और वह कोई देवता के रूप में अवतरित कोई मनुष्या भी नहीं है वह केवल एक साधारण से मनुष्य है जो अपने राज्य में बहुत ही न्यायप्रिय तरीके से राज्य करते है और उनका नाम राजा हरिशचन्द्र है-
जब आचार्य वशिष्ट में अपनी यह बात सभी देवताओ और गुरु विश्वामित्र से कही तो सभी लोग अचंभित रह गए और तभी विश्वामित्र जी ने कहा की आचार्य वशिष्ट मैं भी काफी समय से पृथिवी पर रहा हूँ लेकिन मुझे तो ऐसा एक भी बार नहीं लगा की महाराज हरिशचन्द्र इस पूरे संसार में सबसे बड़े त्यागी सत्यवादी और दानी राजा है और आचार्य वशिष्ट जहा तक मुझे लगता है की सबसे बडा त्यागी होना किसी पृथ्वी वासी के बस ने नहीं है और वो भी किसी साधारण राजा के वश में बिलकुल नहीं –
आचार्य वशिष्ट ने कहा की महर्षि मैं तो ठीक ही कह रह हूँ और मुझे विश्वास है की इस पूए संसार में इस समय सबसे बडा दानी सबसे बडा सत्यवादी सिर्फ राजा हरिशचन्द्र है है अगरआपको मेरी बातो पर विश्वास ना हो तो आप ऐसा करे की आप अपनी मन की संतुष्टि और बाकियों के मन की संतुष्टि के लिए राजा हरिशचन्द्र की परीक्षा ले ले और यह पता लगा ले ली क्या मैं जो बात इतने विश्वास से कह रहा हूँ वह कितनी सत्य है और कितनी जूठ है
जब आचार्य वशिष्ट ने महर्षि विश्वामित्र से यह वाक्य कहा तो उन्होंने कहा की ठीक है आचार्य वशिष्ट अगर आप कह रहे है तो मैं आपके कथन के अनुसार राजा हरिशचन्द्र की परीक्षा जरुर लूँगा और यह पता लगाऊंगा की जो आप कह रहे है वह वाकई में सत्य है, क्या राजा हरिशचन्द्र ही इस समय पूरे संसार में सबसे बड़े दानवीर सत्यवादी और त्यागी है
महर्षि विश्वामित्र उसके बाद स्वर्ग से अंतर्ध्यान होकर पृथ्वी लोक पर आ गए और सोचने लगे की कौन सी ऐसी परीक्षा ली जाये राजा हरिशचन्द्र की जिससे यह सिध्य हो सके की महराज हरिशचन्द्र सबसे बड़े दानी त्यागी और सत्यवादी नहीं है
जब महर्षि पृथ्वी लोक पर आये तो उस समय राजा हरिशचन्द्र एक जंगल में थे जब महर्षि ने देखा की राजा हरिशचन्द्र इस समय जंगल में है तो उन्होंने अपने आप को एक तपस्व्यी संत में परवर्तित कर लिया और राजा हरिशचन्द्र के सामने गए जब राजा हरिशचन्द्र ने देखा की एक तपस्यवी उनकी ओर बढता आ रहा है तो राजा हरिशचन्द्र ने उस तपस्यवी को प्रणाम किया और कहा की ऋषिवर आदेश करिए यह दास आपकी सेवा किस प्रकार करे
महर्षि विश्वामित्र ने कहा की राजन इस समय मुझे कोई सेवा सत्कार की जरूरत नहीं है लेकिन मेरा मन एक विशाल यज्ञ करने के बारे में सोच रहा है बस उसी की तैयारी करने के बारे में सोच रहा हूँ तो हो सकता है की उस समय मुझे आपकी कोई मदद लगे राजा हरिशचन्द्र ने कहा की ठीक है महर्षि ये मेरा वचन है की आपसे की आप मुझसे जो भी मागेगे वो मैं आपको दूंगा और आपके लिए मेरे महल में सभी द्वार आठो प्रहर के लिए खुले हुए है जब आपका मन करे तो आप बिना संकोच के इस दास के पास चले आना उसके बाद महर्षि विश्वामित्र वह से चले गए
कुछ समय बाद महर्षि विश्वामित्र राजा हरिश्चन्द्र के भरे दरबार में पधारे और राजा ने विश्वामित्र को देख तो उनको प्रणाम किया और उनका स्वागत किया उसके बाद कहा की महर्षि आपने कहा था की आपको एक यज्ञ करनी है उसमे आपको शायद मेरी मदद पड़ सकती है तो बताइए महर्षि मैं किस प्रकार से आपकी मदद करू महर्षि विश्वामित्र ने कहा की राजन मैं उसी यज्ञ पूर्ति की मदद की कामना से ही आपके पास आया हूँ-
वैसे तो यज्ञ की तैयारी पूरी हो चुकी है लेकिन बस यज्ञ पूर्ति के लिए कुछ दान की आवश्यकता है लेकिन राजन समस्या यह है कि…..(महर्षि संचोक करते हुए) मुझे लग नहीं रहा है की मैं वह दान मागू और तुम वह दे दोगे इस पर राजा हरिशचन्द्र ने कहा की ऐसे कैसे हो सकता है जब मैंने वचन दिया है तो वह मैं जरुर पूरा करुगा महर्षि आप जो भी कुछ अपने यज्ञ के लिए मगाना चाहते है मागिये अगर आप मुझसे मेरे प्राण भी मागोगे तो मैं वह भी दे दूंगा
महर्षि विश्वामित्र ने कहा की ठीक है अगर आप इतना विस्वास दिला रहे हो तो ठीक है मैं अपने यज्ञ के लिए दान की माग आपसे माग ही लेता हूँ लेकिन राजन माग सुनने के बाद अगर आपका मन करे तो मुझे मना कर देना मैं यहाँ से चला जाउगा क्योकि मुझे ऐसा लग रहा है कि आप मेरी मांग को पूरा नहीं कर पाओगे
राजा हरिशचन्द्र ने कहा की मागिये ऋषिवर आपका जो मन करे आप वह मागिये जब राजा हरिशचन्द्र ने यह बात कहीं तो महर्षि ने कहा की सुनो राजन दान में मुझे तुम्हारा सारा ऐश्वर्य,सारा राज्य और सारा धन चाहिए जब महर्षि ने यह माग महराज हरिशचन्द्र के सामने रखी तो सभी लोग चकित थे और अचंभित थे और सभा में उपस्थति सभी लोगो को यह लग रहा था की यह ना मागे जाने वाली माग है इसलिए महराज हरिशचन्द्र को इस माग को मना कर देना चाहिए
सन्न राजसभा में हस्ते हुए महराज हरिशचन्द्र ने कहा की ऋषिवर आपने तो बहुत ही सामान्य चीज माग ली है इसलिए मैं इस सभी सभा और पंचतत्वो को साक्षी मान करके आपको यह सभी चीज दान में देता हूँ जब महर्षि ने यह सुना तो वह चकित हो गए और कहा वाह राजन ऐसा दान तो सिर्फ आप ही दे सकते हो पर शास्त्रों में एक बात कही गयी है दान का संकल्प बिना दक्षिणा के नहीं होता है इसलिए राजन मुझे दान के साथ में आप से दक्षिणा की भी अपेक्षा है
राजा हरिशचन्द्र ने कहा हां बिलकुल मैं भी सहमत हूँ मागिये आप क्या मागते है दक्षिणा में, इस पर महर्षि विश्वामित्र ने कहा की मुझे दक्षिणा में 1000 स्वर्ण मुद्राये चाहिए राजा ने अपने खजांची से कहा की महर्षि को एक हजार सोने की मुद्राये दे दी जाये
खजांची जैसे ही उठने को हुआ विश्वामित्र ने कहा की तुम चुप चाप जाकर अपने स्थान पर बैठ जाओ क्योकि अब तुम्हारा राजा मैं हूँ अभी थोड़ी देर पहले ही तुम्हारे राजा ने मुझे अपना पूरा राज पाठ दान में दे दिया है और दान में दी गयी वस्तु से दान नहीं दिया जाता है
महाराज हरिशचन्द्र नें कहा की क्षमा करिए महर्षि मैं भूल गया था की मैं अपना संपूर्ण राज्य आपको दान कर चुका हूँ लेकिन मैं संध्या तक आपको एक हजार स्वर्ण मुद्राये दक्षिणा में दे दूंगा महर्षि विश्वामित्र ने कहा की ठीक है लेकिन शाम तक तुमने मुझे दान में एक हजार सोने की मुद्राये नहीं दी तो मैं आपके द्वारा दिए गए इन दानो को भी वापस कर दूंगा
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चिंता में पड़े हरिशचन्द्र अपनी पत्नी तारा और पुत्र रोहित को लेकर राजमहल से बाहर निकले अब राजा एक सामान्य मनुष्य थे अब कौन उन्हें एक हजार स्वर्ण मुद्राये देगा क्योकि आदमी जब तक सत्ता में रहता है तब तक उसे लगता है सब कुछ प्राप्त करना आसान है लेकिन जब वही व्यक्ति सत्ता से बाहर होता है तो उसे वास्तविक संसार का महत्वा पता लगता है
राजा हरिशचन्द्र ने स्वयं को दासो के दरबार में प्रस्तुत करके कहा की मैं अपने आप को नीलाम करता हूँ जो मुझे खरीदना चाहता है वह खरीद ले लेकिन मुझे एक हजार स्वर्ण मुद्राये दे दे जो भी व्यक्ति मुझे ख़रीदे
जब हरिश्चंद ने यह एलान किया तो उस एलान से कोई भी व्यक्ति सामने नहीं आया और बड़े-बड़े व्यक्ति भी पीछे हट गए बनारस के उस घाट पर गंगा के किनारे शमसान पर अंतिम क्रिया कराने वाले डोभ ने सोचा की दास की तो मुझे भी आवश्यता है तो उस डोभ ने हरिशचन्द्र को एक हजार स्वर्ण मुद्राये देकर कहा की जाओ मैंने तुम्हे खरीद लिया महराज हरिश्चंद ने एक हजार स्वर्ण मुद्राओ को महर्षि विश्वामित्र के दिया और शाम होने से पहले अपने मालिक डोभ राजा के पास वापस लौट आये
अब राजा हरिशचन्द्र स्वयं को बेचकर दास बना चुके थे इसलिए उनपर अब उनकी पत्नी का भी अधिकार नहीं था दिन बीतेते गए और रानी तारा को जिस राजमहल में धुप भी छूने से पहले आज्ञा लेती थी आज वह एक छोटे से घर में चूल्हा जला रही थी
एक दिन दुर्भाग्य ने और ज्यादा मुह मोड़ा और उस रात को हरिशचन्द्र शमशान में किसी मृत शरीर को आग दे रहे थे तभी उन्होंने एक स्त्री के रोने की आवाज सुनी जब हरिशचन्द्र शमसान से बाहर आये तो देखा की एक स्त्री अपने हाथ में एक छोटे बच्चे का शव लेकर खड़ी थी
राजा हरिशचन्द्र ने पूछा बताइए क्या समस्या है घूघट डाले हुए उस स्त्री ने कहा की आज मेरा बच्चा बाहर खेलने गया था और उसको एक जंगली साप ने काट लिया और इसकी मौत हो गयी और मेरे पास धन नहीं है की मैं इसके कफ़न की व्यवस्था कर सकू जब वह स्त्री इस बात को कह रही थी तब हरिचन्द्र ने सोचा की मैंने इस आवाज को कही तो सुना है हरिशचन्द्र ने कहा की आपके पुत्र का नाम क्या है उस पर उस स्त्री ने कहा की मेरे पुत्र का नाम रोहित है और मेरा नाम तारा है सिवांग
जैसे ही उस स्त्री ने यह बात कही वासी ही हरिशचन्द्र ने उसका चेहरा देख तो वह उसकी पत्नी निकली इसके बाद दोनों पति पत्नी रोने लगे और बच्चे का शव नीचे रख दिए गया
इसके बाद तारा ने कहा की स्वामी अब इसके अंतिम संस्कार की व्यवथा कीजिये हरिशचन्द्र ने कहा वो तो ठीक है लेकिन बिना कफ़न के इसके अंतिम संस्कार की प्रकिया कैसे प्रारंभ होगी और कफ़न के लिए इस शमसान का मूल्य चुकाना होगा तो इस पर तारा ने कह की प्रभु आप तो जानते हो की मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है मैं कैसे इसके कफ़न का मूल्य चुकौगी
हरिशचन्द्र ने कहा की तारा मैं तो सिर्फ अब एक दास हूँ और मेरे मालिक का आदेश है की बिना कफ़न मूल्य के किसी भी शव का अंतिम संस्कार ना किया जाये इसके बाद हरिश्चन्द्र की पत्नी तारा ने अपनी सूती साड़ी की एक टुकड़े को फाड़ा और कहा की ये लो मैं अपनी आधी साडी से अपने शरीर को ढक लूगी और आधे का इसका कफ़न बना कर अंतिम संस्कार करो दो और अपनी कर्त्तव्य को निभाओ
जब इस दृश्य को सभी देवताओ ने देखा तो वह सभी चकित रह गए और तभी वह पर महर्षि विश्वामित्र प्रकट हुए और भीगी आँखों से हरिश्चन्द्र को गले लगाया और कहा की वत्स यह केवल तुम्हारा और केवल तुम्हारे कुल का साहस है जो सत्यानिष्ट और त्याग की इतनी बड़ी परीक्षा में सफल हुए हो
मैं तो केवल देवताओ के कहने पर तुम्हारी परीक्षा ले रहा था इसलिए मैं तुम्हे तुम्हारा सारा धन तुम्हारा राजपाट तुम्हे वापस करता हूँ और साथ में देवताओ के आशीर्वाद से तुम्हारे पुत्र को जीवित कर देता हूँ उसके बाद महर्षि विश्वामित्र ने कहा की जब तक इस पृथिवी पर तुम जैसे राजा है स्वर्ग भी पृथ्वी का गुणगान करता रहेगा
तो ये तो कथा थी महराज सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र की जिन्होंने अपने सत्वादिता और अपने वचन के लिए अपने आप को दास बना दिया और अपना सब कुछ दान में दे दिया लेकिन इस कथा का सार क्या होगा ?
इस कथा का सार यह है की आपकी ईमानदारी संसार को तभी दिखेगी जब आपको जीवन में बेईमानी करने के उचित अवसर मिले,आप मजबूर भी हो और आप बहुत परेशान भी हो लेकिन आप अपने कर्तव्य और सत्यनिष्ठा पर खड़े हो
अगर आपकी सत्ता आपका धन आपको अपने नैतिक मूल्यों से दूर हटने पर मजबूर करती है लेकिन आप अपने नैतिक मूल्य से ना भटकर इस अपने नैतिक मूल्य के प्रति ईमानदार रहेगे तो आपका नाम भी स्वर्णिम अक्षर में महराज हरिश्चन्द्र के जैसा लिखा जायेगा
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